-दिनेश ठाकुर
बसंत का यही मौसम था। राजेश खन्ना की 'आनंद' 50 साल पहले 12 मार्च, 1971 को सिनेमाघरों में पहुंची थी। यह सजल-निर्मल आनंद-सी फिल्म देखने से पहले तब कई लोग हैरान थे कि इसमें राजेश खन्ना के साथ कोई नामचीन नायिका क्यों नहीं है। उन दिनों राजेश खन्ना रोमांस के शहंशाह के तौर पर मशहूर थे। शर्मिला टैगोर, मुमताज और आशा पारेख के साथ उनकी जोड़ी फिल्मों की कामयाबी की गारंटी मानी जाती थी। फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी ने 'आनंद' में तमाम प्रचलित धारणाओं को तोड़ दिया। एक धारणा यह भी थी कि किशोर कुमार के बगैर राजेश खन्ना की फिल्म में गीतों की कल्पना नहीं की जा सकती। 'आनंद' में किशोर कुमार की आवाज में कोई गीत नहीं है। इसके बजाय संगीतकार सलिल चौधरी ने राजेश खन्ना के होठों पर मुकेश और मन्ना डे की आवाज सजाई। फिल्म के तमाम गीत आज भी जमाने को मोह रहे हैं।
कहानी के धागे में फूल की तरह पिरोए गए गीत
'आनंद' उन गिनती की फिल्मों में से एक है, जहां कहानी के धागे में गीत फूल की तरह पिरोए गए लगते हैं। ऐसा बहुत कम होता है कि आप कोई गीत सुनें और फिल्म की पूरी कहानी आंखों में घूम जाए। आम तौर पर यह होता है कि फिल्मों की कहानी उत्तर में घूमती है और उनके गीत दक्षिण-पश्चिम की सैर कराते हैं। 'आनंद' के गीत उसी जमीन के हैं, जिस पर फिल्म खड़ी है। खास तौर पर दो गाने फिल्म की थीम की नुमाइंदगी करते हैं। दोनों योगेश गौड़ ने लिखे थे। इनमें से 'जिंदगी कैसी है पहेली, हाय/ कभी तो हंसाए, कभी ये रुलाए' (मन्ना डे) की कोमल, गहरी भावनाएं सीधे दिल में उतरती हैं। दूसरे गीत 'कहीं दूर जब दिन ढल जाए' (मुकेश) में यह भावनाएं और सघन होती हैं। योगेश के शब्दों की जादूगरी देखिए- 'कहीं तो ये दिल कभी मिल नहीं पाते/ कहीं पे निकल आएं जनमों के नाते/ ठनी-सी उलझन, बैरी अपना मन/ अपना ही होके सहे दर्द पराए/ कहीं दूर जब दिन ढल जाए/ सांझ की दुल्हन बदन चुराए, चुपके से आए/ मेरे ख्यालों के आंगन में कोई सपनों के दीप जलाए।'
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खुशी-खुशी जीने का सबक
कुछ काल्पनिक और कुछ वास्तविक दुखों की मारी दुनिया को 'आनंद' जिंदगी को खुशी-खुशी भरपूर ढंग से जीने का सबक देती है। आंतों के कैंसर से जूझ रहा फिल्म का नायक आनंद (राजेश खन्ना) जानता है कि वह चंद दिनों का मेहमान है, लेकिन दुखों का पहाड़ खड़ा करने के बजाय वह खुद खुलकर हंसता है और दूसरों को भी हंसाता है। उसका डॉक्टर दोस्त (अमिताभ बच्चन) उसको लेकर दुख में डूबा है। एक सीन में आनंद उसे जिंदगी का फलसफा बताता है- 'मौत तो एक पल है। उस एक पल के लिए जिंदगी के जो हजारों-लाखों पल बाकी हैं, उन्हें रोने-धोने में क्यों बर्बाद किया जाए।' एक्टिंग के लिहाज से राजेश खन्ना 'आनंद' में बुलंदी पर हैं। काश, इस बुलंदी को वह कुछ और फिल्मों में कायम रख पाते। रूमानी नायक की इमेज के मोह में बाद की ज्यादातर फिल्मों में वह अपनी ही पैरोडी करते नजर आए। टीना मुनीम के साथ 'सौतन' इस पैरोडी की हद थी।
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आनंद मरा नहीं करते
आज न राजेश खन्ना हैं, न हृषिकेश मुखर्जी, न सलिल चौधरी, न योगेश, न मन्ना डे और मुकेश। लेकिन 'आनंद' अमर बेल की तरह आज भी हरी-भरी है। फिल्म का एक संवाद इस सच का मुकम्मल बयान है- 'आनंद मरा नहीं, आनंद मरा नहीं करते।' जैसे 'शोले' में हर कलाकार अलग पहचान के साथ मौजूद है, उसी तरह 'आनंद' में भी हर कलाकार की अलग हैसियत है। फिल्म भले पूरी तरह से राजेश खन्ना की हो, डॉक्टर के किरदार में अमिताभ बच्चन (इनकी पहचान इसी फिल्म से उभरी) और रमेश देव, अमिताभ की प्रेमिका के किरदार में सुमिता सान्याल, नर्म-दिल नर्स के किरदार में ललिता पवार की मौजूदगी भी पूरी फिल्म में महसूस होती है। ड्रामा कंपनी चलाने वाले ईशा भाई सूरतवाला के छोटे-से किरदार में जॉनी वाकर भी लोगों को याद हैं। राजेश खन्ना को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता और अमिताभ बच्चन को सहायक अभिनेता के फिल्मफेयर अवॉर्ड से नवाजा गया था। यह जोड़ी बाद में हृषिकेश मुखर्जी की ही 'नमक हराम' में फिर साथ नजर आई।
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